जीवन में यह जान न पाया,
कलियों को मुस्काते देखा,
फूलों को भी हंसते देखा,
पर इतनी सुंदरता में भी, कांटे हैं पहचान न पाया।
चंदन वन शीतल लगते हैं,
मन को वे पल-पल हरते हैं,
पर उनके तरुओ में लिपटे विषधर हैं संज्ञान न पाया।
रवि-किरण को उगते देखा,
उजियारे को बढ़ते देखा,
पर ढलने में छिपे हुए मैं अंधियारे अनुमान न पाया।
अंबर में बादल उड़ते हैं,
जीने को वे जल देते हैं,
पर उनमें बिजली होने का
मैंने किंचित भान न पाया।
अपने तो अपने लगते हैं,
सुंदर से सपने लगते हैं,
पर इनसे घर आग लगेगी,
समझ कभी नादान न पाया।
जीवन में यह जान न पाया।
डॉ, एस .पी शुक्ला (गोल्ड मेडलिस्ट)